चार साहिबजादों की बेमिसाल दिल दहलाने वाली एतिहासिक शहादत



20 दिसंबर सन् 1704 ई. की रात्रि सिक्ख इतिहास की सबसे दर्दनाक घटना जब पिता श्री गुरू गोविन्द सिंघ जी ने “अनन्दपुर साहिब” का किला छोड़ा तो सरसा नदी पार करते समय उनका पूरा परिवार बिछुड़ गया। 10 लाख मुगल फौजो ने आक्रमण कर दिया।
चमकौर साहिब में भयानक युद्ध हुआ। जिसमें 40 सिक्ख और दो बड़े साहिबजादें “बाबा अजीत सिंघ जी” उम्र 17 वर्ष बाबा जुझार सिंघ जी उम्र 14 वर्ष ने मुगल फौजों का डटकर मुकाबला किया, और दुश्मनों को मार गिराया।
अपने देश, धर्म और जाति की खातिर 22 दिसंबर 1704 ई. को दोनों बड़े साहिबजादों और सिंघों ने शहीदी प्राप्त की।
दोनों छोटे साहिबजादें “बाबा जोरावर सिंघ जी” उम्र 9 वर्ष बाबा फतेहि सिंघ जी उम्र 6 वर्ष अपनी दादी माता “गुजर कौर जी” के साथ सरसा नदी में बाढ़ आने के कारण पिता “कलगीघर” से बिछुड गये और रसोइयें गगूंराम के घर उसके गांव सहेड़ी पहुंच गये।
गगूंराम की नजर माता गुजर कौर की स्वर्ण मुद्राएं की थैली पर पड़ गई। वह धन का लालची निकला और स्वर्ण मुद्राएं चोरी कर ली।
उन्हीं दिनों सरहिंद के नवाब वजीर खान ने ढ़िढ़ोरा पिटवा दिया कि जो भी गुरूदेव और उनके परिवार को पकड़वायेगा उसे उचित इनाम दिया जायेगा।
गंगू पापी निकला और सरहिंद के नवाब को सूचना देकर दादी मां और दोनो छोटे साहिबजादें “बाबा जुझार सिंघ जी” “बाबा फतेहि सिंघ जी” को गिरफ्तार करवा दिया। सरहिन्द के ऊपरी हिस्से अत्यंत ठंडे बुर्ज में कैद कर तरह-तरह की यातनाये दी और भूखा रखा।
भाई मोतीराम जी गुरू घर का श्रद्धालु “माता गुजर कौर” छोटे साहिबजादें के लिए रात्रि में सिपाहियों को स्वर्ण मुद्रायें देकर दूध की सेवा कर रहा था। जब मुगलों को पता चला तो भाई मोतीराम के पूरे परिवार को कोलहू में पीसकर शहीद कर दिया गया।
अलगी सुबह होते ही मुगल सैनिकों ने नवाब के दरबार में दोनों छोटे साहिबजादें को हाजिर होने का आदेश दिया।
दादी मां का आशीर्वाद लेकर दोनों “कलगीधर सपुत्र” नवाब वजीर खां के दरबार मे “बोले सोनिहाल” के नारे लगाते पहुंचे।
छोटे साहिबजादें को सिर झुकानें और इस्लाम धर्म कबुल करने कहा। तरह तरह के लोंभऔर लालाच भी दिये।
दोनों साहिबजादों ने एक ही स्वर में कहा
“सिर जावै ता जावें, मेरा सिक्खी सिदक न जावै”
हमारा शीश सिर्फ ईश्वर और गुरू पिता के सामने ही झुकता है। किसी अत्याचारी के आगे नहीं।
यह सुनकर नवाब कोध में आ गया और दोनों छोटे साहेबजादों को जिंदा दीवार में चुने जाने की सजा सुना दी।
वीर सपुत सरहिद की दिवार में चिने जा रहे थे। जब दिवार छोटे भाई के गले तक आ गई तो बड़े भाई जोरावर सिंघ जी की आंखों से अश्रुधारा बह रही थी। काजी मुल्लाओं ने समझा कि ये मौत से घबरा रहे है। दीवार का चिनना रोक दिया गया, किंतु बड़े साहिबजादें ने वीरता से इन आंसुओं का कारण बताया कि छोटा भाई फतहि सिंघ इस दुनिया में मुझसे बाद में आया है। किंतु धर्म की बलिवेदी पर मुझसे पहले कुरर्बान हो रहा है जबकि इससे पहले मेरा हक है।
बाबा जोरावर सिंघ जी और बाबा फतेहि सिंघ जी ने निर्भय हो कर जालिमों को इस तरह जवाब दिया
“हमारे पंथ की जय हो, श्री गुरूग्रंथ की जय हो। हमारे देश की जय हो, पिता दशमेश की जय हो।”
वीर सपुत धर्म ही रक्षा के लिए शहीद हो गये। इन शहीदों के अंतिम संस्कार के लिए सुबा सरहिंद ने जगह देने के लिए एक शर्त रखी। गुरूघर के श्रद्धालु दीवान टोडरमल ने शर्त अनुसार धन इकट्ठा करके खड़ी अशफियां रखकर अंतिम संस्कार के लिए जगह मौल ली और साहिबजादों का अंतिम संस्कार किया।
साहिबजादों ने अपना शीश भेंट करके सिक्ख कौम तथा भारत का शीश ऊंचा कर दिया। साहिबजादों की शहीदी की खबर सुनकर “माता गुजरकौर” जो “अकाल पुरख” का ध्यान करके अपने प्राणत्याग कर शहीदी पाली।
जहां छोटे साहिबजादों तथा “माता गुजर कौर जी” की शहीदी हुई वहां पर आज गुरूद्वारा श्री फतहिगढ़ साहिब” सुशोभित है।
“दशमेत पिता बांजा वाले के,
वीर सपुत्र चार,
जोड़ा-जोड़ा बनकर उन्होनें,
जीत लिया संसार”
शहीदी के संबंध में पिता श्री गुरू गोविन्द सिंघ जी ने कहा “चार मुये तो क्या हुआ जीवत कई हजार”
वाहिगुरू जी का खालसा
वाहिगुरू जी की फतहि
मनजीत कौर पसरीजा
