दिवाली पर आकाशदीप जलाने की क्या हैं परंपरा, आखिर कैसे शुरू हुई ये परंपर ..जानें एक ही क्लिक में

194
आकाशदीप कहान
आकाशदीप कहान

हर साल दिवाली के पर्व पर दीयों की लड़ी के साथ आकाशदीप भी लोगों के आकर्षण का केंद्र बनते हैं. हिंदू मान्यता के अनुसार आकाशदीप या फिर कहें आकाश कंदील की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है. जिसे दीपावली में की जाने वाली सजावट का अहम हिस्सा माना जाता है,

WhatsApp Group Join Now
Telegram Group Join Now

रामायण काल से जुड़ा है आकाशदीप

हिंदू मान्यता के अनुसार आकाशदीप का इतिहास रामायणकाल से जुड़ा है. मान्यता है कि जब अयोध्या के राजा राम लंका विजय के बाद वापस अपने नगर लौटे तो वहां के लोगों ने उनके स्वागत में दीये जलाए थे. मान्यता है कि प्रभु श्री राम के वापस आने में मनाए गये दीपोत्सव को दूर तक दिखाने के लिए लोगों ने बांस में खूंटा बनाकर उसमें दीये के जरिए रोशनी की थी. तब से लेकर आज तक यह परंपरा चली आ रही है. आधुनिक काल में दिवाली के मौके पर कागजी गुब्बारे को दिए की गर्म लौ से हवा में उड़ाने की परंपरा भी उसी की प्रतीक है. छोटी और बड़ी दीपावली की रात रंग-बिरंगी कंदील को आसमान में लोग विशेष रूप से जलाकर उड़ाते हैं.

महाभारत में भी मिलता है इसका प्रसंग

वाराणसी में लंबे समय से अपने पितरों की स्मृति में आकाशदीप जलाने की परंपरा चली आ रही है. मान्यता यह भी है कि इस परंपरा की शुरुआत महाभारत काल से हुई थी. कहते हैं कि महाभारत के युद्ध के दौरान दिवंगत हुए लोगों की याद में भीष्म पितामह ने कार्तिक मास में विशेष रूप से दीये जलवाए थे. जिसके बाद से यह परंपरा लगातार चलती चली आ रही है.

समाजवादी पार्टी रायपुर जिलाध्यक्ष बृजेश चौरसिया को यूपी चुनाव में मिली बड़ी जिम्मेदारी

आकाशदीप दान करने से होता है ये  

आकाशदीप का दान करता है उसे सुख-संपत्ति और सौभाग्य की प्राप्ति होती है. उस पर देवी-देवताओं संग पितरों की पूरी कृपा बरसती है. मान्यता है कि कार्तिक मास की अमावस्या के दिन जो व्यक्ति आकाश में दीपदान करता है उसके पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है और आसानी से परमलोक को जाता है. वर्तमान में आकाशदीप या फिर कहें कंदील को लोग आश्विन शुक्लपक्ष की एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्लपक्ष की एकादशी तक अपने छत, बालकनी या फिर घर के मुख्य द्वार पर लगातर जलाते हैं.

 

IMG 20240420 WA0009