सेवामूर्ति वन्दनीय सरस्वती ताई जी

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भारत भूमि केवल चौहद से घिरा कोई भूमि का टुकड़ा नहीं अपितु यह हमारी मातृभूमि है। यह पुण्य भूमि है ऋषि- मुनियों और बलिदानियों की। और यह कर्म भूमि है वंदनीय लक्ष्मीबाई केलकर जी( मौसी जी ) और वंदनीय सरस्वती बाई आप्टे ( ताई जी ) जैसे अनगिनतों की। मौसी जी और ताई जी, जैसे माँ लक्ष्मी और माँ सरस्वती का अटूट संबंध । जैसे गंगा की उफनती धार और यमुना का शांत शीतल बहता पानी,जिसके संरक्षण में पोषित- पल्लवित होती राष्ट्र सेविका समिति।

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एक कुशल गृहिणी, एक स्नेहसुधा बरसाती माँ , एक कर्मठ समाजिक कार्यकर्ता, एक समर्पित सेविका, एक समिति की सर्वोच्च पदाधिकारी।

वंदनीय ताई जी का जन्म कोंकण के आजर्ले गाँव में फाल्गुन कृष्ण एकादशी 1910 में हुआ था। बड़ा प्यारा सा नाम मिला (तापी), ताप को हरण करने वाली। अक्षर अक्षर सार्थक। आपका व्यक्तित्व शालीनता, सरलता और शांति का पर्याय था। मुँह में मिश्री, माथे पर बर्फ और ह्रदय में ठंडक। जिसका पालन पोषण लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी के सानिध्य में हुआ हो उसका  विलक्षण प्रतिभावान होना स्वाभाविक था।

15 वर्ष की आयु में आपका विवाह पुणे के श्री विनायक राव आप्टे जी से हुआ। नया नाम मिला सरस्वती बाई। गृह कार्य में दक्ष सरस्वती ताई जी की रसोई के चर्चे दूर-दूर तक थे।  विषम एवं विकट परिस्थितियों में भी आपकी चौखट से कोई भूखा नहीं जाता था। बड़े सेवा भाव से, ममता और स्नेह से परोसी गई आपकी भोजन की थाली को “द्रौपदी की थाली” की संज्ञा दी गई थी। “मातृ हस्तेन भोजनम” आपकी ममतामयी आचरण की ही देन है।

पूजनीय डॉक्टर साहेब जी का आपके घर आना जाना था। एक दिन डॉक्टर साहब ने आपको वर्धा जाकर वंदनीय लक्ष्मीबाई केलकर जी से भेंट करने की सलाह दी। मौसी जी से मिलते ही आपको अपने कार्य को गति देने का मार्ग मिल गया और ‘मैं – अहम से हम – वयम की जो बयार बही, वह आज तक राष्ट्र सेविका समिति की प्राणवायु है और आगे भी रहेगी। आपको विरासत में मिले राष्ट्रभक्ति के संस्कार,  गोवा मुक्ति संग्राम एवं पानशेत बाँध टूटने से आए प्रलय में आपके महत्वपूर्ण योगदान से परिलक्षित होते हैं।

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“शाखा संजीवनी है”। आपका कहना था कि आप पहले एक सेविका हैं बाद में मुख्य संचालिका। नित्य शाखा जाना हमारा मुख्य कर्तव्य होना चाहिए। शाखा संजीवनी के समान हमारे तनाव, बेचैनी और उदासी को दूर कर मन को पुनः स्वस्थ, स्थिरता और सक्रियता देती है। हमेशा विद्वता से अधिक व्यवहारिकता आपकी पहचान रही। आपका आचरण एक पूर्ण पाठशाला है। आपको व्यर्थ समय बिताना, खाली बैठना बिल्कुल भी पसंद नहीं था। आपकी बारीक और कुशल कसीदाकारी, सजीली रंगोली, पूजा स्थल की सजावट, पूजा की थाली की सुंदर व्यवस्थितता, सभी को आकर्षित करती थी। आप वर्षभर सुंदर सुंदर राखी बनाती थी। रक्षाबंधन के दिन कार्यालय के उच्च अधिकारियों से लेकर सफाईकर्मियों तक की कलाई आपकी राखी से सजी होती थी। बस्तियों में जाकर हर एक को राखी बांध कर आप उसे अपना बना लेती थी। आपका जनसंपर्क अत्यंत व्यापक था। आपका नाड़ी परीक्षण, आपकी मालिश, आप
की बनाई हुई औषधियों से कितने पीलिया ग्रसित लाभान्वित हुए थे। अकाल के समय आपने “राऊतबाड़ी” को गोद लेकर घर घर की, जन-जन की देखभाल की। आपकी धारणा थी कि 24 घंटे में कम से कम 1 घंटा तो सामाजिक कार्य के लिए नियोजित करना ही चाहिए। आप से प्रेरित होकर, पूरे भारत भर में आपके स्मृति दिवस को सेवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।

राष्ट्र सेविका समिति की सेविकाओं का सर्वांगीण विकास हो इसके लिए आपने ‘वर्ग’ की प्रथा शुरू की। आप के कार्यकाल में ही हमारी समिति की शाखाएँ और संपर्क विदेशों में भी होने लगी। समिति के कार्य की व्यापकता को देखते हुए आपने सह प्रमुख संचालिका का पद निर्माण किया और उसका प्रथम दायित्व उषा ताई जी को दिया। अहिल्याबाई मंदिर में ‘पूर्वांचल कन्या छात्रावास’ का कार्य भी आपकी देखरेख में प्रारंभ हुआ। कोई भी कार्य आसान नहीं था, परंतु साथ ही, आपके लिए कोई भी कार्य असंभव भी नहीं था।

Learning To Be Happy "आइए सीखें प्रसन्न रहना "

“मेरे पास समय नहीं है। मैं थक गई हूँ। मैं यह नहीं कर पाऊंगी” ऐसा नहीं कहते। यह आपने हीं सिखाया।

हम अपने राष्ट्र और समाज के अभिन्न अंग है। हमारे कई दायित्व है। उसे पूरा करने हेतु हमें राष्ट्र सेवा का बारहमासा व्रत लेना चाहिए।

आपके दिए ये सूत्र सभी के लिए पाथेय हैं:

स्त्री और पुरूष एक दूसरे के पूरक हैं, स्पर्धक नहीं।
हमें अपनी महानता को पहचानना होगा। दूसरों के दोषों को निकालने के बदले अपने अंदर सद्गुणों का विकास करें, अपने संस्कारों को निखारे। हम अष्टभुजा देवी माता की कन्याएँ हैं। हममें अपार शक्ति है। हम एक हीं समय में,अनेक कार्यों का सफल निष्पादन करने की अदभूत क्षमता रखतीं हैं।
‘निष्ठा’ तारक  होती है। अपने कर्म एवं आचरण में निष्ठा एवं सामंजस्य रखना होगा। तभी “वयम भावी तेजस्वी राष्ट्रस्य धन्या” की आकांक्षा साकार हो सकेगी।

मां भारती को संपूर्ण जगत में तेजस्वी राष्ट्र के रूप में देखने का सपना लिए आप निरंतर 84 वर्ष की उम्र तक भारत के कोने कोने में दूर-दूर तक प्रवास करती रहीं और आपके  अंतिम प्रवास ‘परम धाम’ की यात्रा के लिए  महाशिवरात्रि का दिन निश्चित हुआ। अपने अंतिम इच्छा पत्र में “जाने अनजाने में किसी से कुछ भला बुरा कहा हो तो मुझे क्षमा करना” आपके व्यक्तित्व की महानता को दिखाता है तो आपकी कृतित्व के लिए

“सात समंद की मसि करौं, लेखनी सब बनराई।

धरती सब कागद करौं,ताईजी गुण लिख्या न जाए।।

आपको हम सबका वंदन है। प्रणाम है।

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