अमर शहीद चार साहिबजादे

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अमर शहीद चार साहिबजादे
अमर शहीद चार साहिबजादे

सिक्खों द्वारा हर वर्ष दिसंबर माह में श्री गुरू गोविंद सिंघ जी के चार साहिबजादे “बाबा अजीत सिंघ जी” “बाबा जुझार सिंघ जी” “बाबा जोरावर सिंघजी” “बाबा फतेह सिंघ जी” की लासानी शहादत को पूर्ण श्रद्वा भावना से मनाया जाता है।

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इतिहास की दर्दनाक घटना जब श्री गुरुगोविंद सिंघ जी ने अनंदपुर साहिब का किला छोड़ा तो सरसा नदी पार करते समय उनका पूरा परिवार बिछड़ गया। मुगलों ने आक्रमण कर दिया। चमकौर साहिब में घमासान युद्ध हुआ। जिसमें दोनों बड़े साहिबजादे शहीद हो गये।

रात अंधेरी और बिजली चमक रही थी। माता गुजरी के साथ उनके दो छोटे पोते “साहिबजादा जोरावर सिंघ जी (उम्र-9 वर्ष) साहिबजादा फतेह सिंघ जी थे (उम्र 6 वर्ष)” वे अपने रसोइये गंगू के साथ आगे बढ़ते हुए रास्ता भटक गये।

माता गुजरी जी के पास स्वर्ण मुन्दाएं की एक थैली थी। जिस पर गंगू की नजर पड़ गई और उसकी नीयत खराब हो गई। उसने माता जी को सुझाव दिया आप मेरे साथ मेरे गांव सहेड़ी चले तो यह संकट का समय टल जायेगा। माता जी ने स्वीकृति दे दी और सहेड़ी गांव में गंगू रसोईये के घर पहुंच गये।

उन्हीं दिनों सरहिंद के नवाब वजीर खान ने गाँव-गाँव में ढ़िढोरा पिटवा दिया कि कोई भी गुरूदेव और उनके परिवार को पनाह न दे और जो उन्हें पकडवायेगा। उसे इनाम दिया जायेगा। गंगू नमक हराम निकला। उसने कोतवाल को सूचना देकर एक बैलगाड़ी में “दादी मां और दोनों साहिबजादों को नवाब वजीर खान के पास कड़े पहरे में भिजवा दिया। उन्हें सर्द ऋतु की रात में ठंड़े बुर्ज में बंद कर दिया गया। दादी मां ने भोर होते ही साहिबजादों को जगाया और समझाने लगे तुम “श्री गुरू गोविंद सिंघ शेर गुरू” के बच्चे हो जिसने अत्याचारियों से कभी हार नहीं मानी। उन्हें अपने पिता जी गुरू तेग बहादुर जी की दिल्ली के चांदनी चौक में शहादत देनी पड़ी। कहीं तुम वजीर खान द्वारा दिये गये लालच अथवा भय के कारण धर्म कमजोरी न दिखा देना धर्म की शान को जान न्यौछावर करके भी कायम रखना। दादी जी पोतो को सब समझा ही रही थी कि वजीर खान के सिपाही दोनों साहिबजादों को कचहरी में ले जाने के लिए आ गये। दादी ने दोनों साहिबजादों को चुमा और हाथ फेरते हुए सिपाहियों के संग भेज दिया।

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रास्ते में सिपाहियों ने बार-बार कहा कचहरी में घुसते ही नवाब के समक्ष शीश झुकाना है। कचहरी का बड़ा दरवाजा बंद था। साहिबजादों को खिडकी से अंदर प्रवेश करने को कहा गया। जो सिपाही साथ जा रहे थे, वे पहले सिर झुकाकर खिड़की के द्वारा अंदर दाखिल हुए। उनके पीछे साहिबजादे थे, उन्होंने खिड़की में पहले पैर आगे किये, फिर सिर निकाला। दरबार में दोनों साहिबजादों को सिर झकाने के लिए और इस्लाम कबूल करने को कहा तब साहिबजादा जोरावर सिंघ जी ने कहा।

“सिर जावे ता जावे,
पर सिक्खी सिदक न जावै”

दोनों साहिबजादों ने धर्म परिवर्तन की बात ठुकरा कर शहीद होने को तैयार हो गये और कहा हमारे धरम में हमें मरना पहले सिखाया है। हम मौत से नहीं डरते। साहिबजादों का जवाब सुन के वजीर क्रोधित होके उन नन्ही जानों को जिन्दा दिवाल मं चुनवाने का आदेश देता है। जब दिवाल खड़ी की जा रही थी तब दूसरी तरह दोनों साहिबजादे “जापुजी साहिब” का पाठ कर रहे थे। आखिर में दिवाल को जब पूरी तरह से चुन दिया गया तब भीतर से
“बोले सोनिहाल, सतश्रीअकाल,” के जैकोरे लागाने की आवाज आ रही थी। इतनी छोटी उम्र में दोनों साहिबजादों ने समाज का निर्माण और अपने धर्म की रक्षा के लिए स्वयं को दीवारों में चिनवाया तथा चूमते हुए शहीदी पा गये। दुनिया की यह अजीम, बेमिसाल दिल दहलाने वाली, एतिहासिक शहीदी 13 पौह संवत् 1761 को हुई। इस अलौकिक शहीदी ने भारत के इतिाहस का बहाव ही मोड़ दिया। दुनिया को आश्चर्य में डाल दिया। साहिबजादों ने अपने शीश भेंट करके सिक्ख कौम तथा भारत का शीश ऊँचा कर दिया। सतगुरू चाहते तो अपने पुत्रों को बचा सकते थे पर उन्होंने ऐसा नहीं किया।

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“चार मुवे तो क्या हुआ जीवत कई हजार”
मेरे चार पुत्र शहीद कर दिये मेरा पांचवा पुत्र “खालसा” तो अभी जिंदा है।

साहिबजादों की शहीदी की खबर सुनकर माता गुजरी जी ने “अकाल पुरख” का ध्यान करके अपने प्राण त्याग कर शहीदी पा ली। जहाँ छोटे साहिबजादों तथा माता गुजरी जी की शहीदी हुई, वहाँ पर आज “गुरू द्वारा श्री फतहिगढ़ साहिब जी” सुशोभित है।
“वाहिगुरू जी का खालसा वाहिगुरू जी की फतहि”

मनजीत कौर पसरीजा

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